जिन्दगी में कमाते रहते हैं
खूब रूतबा, व खूब पैसे हम
जमा पूँजी को गिनते रहते हैं
जमा में और जमा करते हैं।
जोड़ने का नहीं है अन्त कोई,
लालसा का नहीं है अन्त कोई,
बस मिले, मिलता रहे, खूब मिले
पेट ठुंस ठुंस के भरे, भरता रहे।
भूल जाते हैं हम जमीं पर हैं
एक दिन ये भी छोड़ जानी है,
थोड़ा ईमान भी कमाना है
थोड़ी इंसानियत कमानी है।
ये जो संग्रह किया है दौलत का
अंत में काम नहीं आना है,
मान-रुतबा यहीं रहेगा सब,
साथ सद्कर्म को ही जाना है।
—- सतीश चन्द्र पाण्डेय