निगाहें उठाकर जिधर देखते हैं
निगाहें उठाकर जिधर देखते हैं
तुम्हें बस तुम्हें हमसफर देखते हैं
उडीं हैं गुबारों सी अब हसरतें भी
खड़े हम तो बस रहगुजर देखते हैं
न कर पाई आबाद शहरों की बस्ती
तो वीरान सा अपना घर देखते हैं
अंधेरे की चादर से बाहर निकल कर
चलो बनके नूरे सहर देखते हैं
किया जो पता जीस्त का अपनी हासिल
कहाँ कुछ है बस इक सिफर देखते हैं
किसी संगदिल को भी जो मोम कर दे
वही लफ्ज़ हम ढूँढ कर देखते हैं
कभी धूप में आरज़ू की जले हम
ये दामन भी अश्कों से तर देखते हैं
~ सुमन दुग्गल