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बुखार में मां की याद आई

कविता-बुखार में मां की याद आई
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वर्ष बाद बुखार हुआ,
मानों-
अंतिम समय ने घेर लिया,
चारों तरफ दिवाली का उत्सव था,
हम लिए बुखार अपनी,
कमरे में-
खुद को कैद कर लिया,
हमें क्या पता दीप कैसे जल गए,
सुनते रहे कानों से,
पटाखे साउंड की आवाज,
कहीं मधुर तो, कहीं घोर आवाज हो गए,
बल नहीं था मुझ में,
छत पर चढ़कर दीपों का दीदार कर लूं,
वर्ष बाद दिवाली आई,
हम भी कुछ दीप जला दूं ,
था रूम पर अकेला,
कोई नहीं सहारा था,
शिवाय मेरे होठों पर ,
मम्मी मम्मी के सिवा ,
ना कुछ नाम था,
बहुत याद आती थी,
मम्मी पापा की मुझे,
होती अगर मां मेरी
बुखार उतरे सर पर पट्टी रख देती,
देख आंखों के आंसू मेरे,
उठा आंचल अपना,
खुदा से दुआएं मांग लेती ,
मालिक ठीक हो जाए लाल मेरा,
यह कहते-कहते खुद आंसू बहा देती,
पोछती ना अपने आंखों का आंसू,
कई बार मेरा हाल पूछ लेती,
मेरे चेहरे पर हाथ फेर देती
नाड़ी पकड़ कर बुखार जान लेती,
मां तेरी कमी खलती मुझे,
पराए शहर में-
आपदा आती जब मुझपे,
तरस जाता हूं-
उस शाम रोटी के लिए,
माँ…
भूखे पेट लेटा हूं,
ठंड के संग लिए बुखार रोता हूं,
वो बचपन की बात याद आती है,
जब हुआ था बुखार मुझे,
रख कंधे पर ,तू दवा के लिए जाती है,
देख चेहरे को मेरे,
डॉक्टर से हाल पूछती,
लॉज खाली था कोई नहीं था अपना,
कौन हाल पूछे मेरा,
बस यही बात सताती –
इस अनजाने शहर में, कोई नहीं हैं अपना,
खाकर पारले जी
कुछ दवाई खा लिया,
उतरकर फिर चढ़ी बुखार जब,
हो सुबह-
तब घर जाने के लिए मन बना लिया
दुख मेरा दुगना हो जाता है,
वो तेरा! दुआओं के संग प्यार देखके,
बस आंखों में आंसू आ जाते हैं,
जब उतरी बुखार मेरी,
सारी यादों को लेकर,
तेरा ‘ऋषि’ कविता लिखने लगता है,
चंद पैसों शोहरत के लिए,
माँ मैं तुमसे बहुत दूर हूं,
आ देख जरा मेरी हालत को,
बुखार में कितना मजबूर हूं
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**✍ऋषि कुमार ‘प्रभाकर’—-

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