मखौल ज़माने का

मखौल ज़माने का उड़ाने वाले गुनहगार तुम भी हो
नफरतों के पेड़ उगाने वाले तलबगार तुम भी हो
गुस्ताखी औरों की तो दिखती है नंगी आँखों से
खुद के गिरेबां पे होती हाहाकार तुम भी हो
कौन से समुन्दर की बात तुम करते हो
समुन्दर के इस पार और उस पार तुम भी हो
हक़ीक़त बयां करते हो किस बात की
अपने हाथों बनाई एक मज़ार तुम भी हो
बातों से तो सिर्फ बातें ही होती है अक्सर
जहाँ को बनाने वाले एक शिल्पकार तुम भी हो
इतिहास के पन्नो पे फ़ैल रहा नफरत का जहर
इतिहास को इतिहास बनाने वाले कलमकार तुम भी हो
राजेश’अरमान’
वाह