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माँ और कवि

कविता – मां और कवि
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मां और कवि में ,
अंतर इतना,
सीता और बाल्मिकी में,
अंतर जितना,
मां सुधा अगर है,
कवि पारस पत्थर है,
मां सरिता गर है,
कवि सागर की गहराई है,
मां गंगा सी निर्मल,
या मानस की चौपाई है,
कवि ब्रह्म समान,
कवि ने ही मां की महिमा बतलाई है,
यदि मां प्रेम की मूरत है,
कवि मां की महिमा की सूरत है,
मां बच्चों की जरूरत है,
कवि दुखियों की जरूरत है,
जान गई रोने से,
बच्चे को भूख लगी है या टट्टी,
कवि जान गया रोने से,
दिल जलता आग की भट्टी से,
मां हर्षित होकर रोती है,
बच्चे को पाकर सोती है ,
कवि खुद की व्यथा लिख कर सोता है,
दुनिया सुनकर हंसती है,
मां आंखों में आंसू भर कर
गाल पर थपकी देती है,
कवि शोक लहर में हो करके,
कविता बैठ के लिखता है,
मां रो भी दे आकार बने,
कवि सौ ग्रंथ लिखे,
ना आकार बने,
बने आकार,
प्रकार कई,
मां के हर शब्दों में,
प्यार कई,
कवि और मां पर कविता लिखना,
मेरे बस की बात नहीं ,
कहें ऋषि मैं हार गया,
तुकबंदी से चलता काम नहीं,
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✍ऋषि कुमार ‘प्रभाकर’

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