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सरेआम रक्खे हैं।

बड़े इत्मिनान से मेरे जहन में कुछ सवाल रक्खे थे,

हो जाने को ज़माने से रूबरू मेरे खयाल रक्खे थे,

बड़ी बेचैनी से एक नज़र जब पड़ी उनकी हम पर,

खुद को यूँ लुटा बैठे जैसे के बिकने को हम खुलेआम रक्खे थे,

दर्द बहुत थे छिपे मेरी पलकों के पीछे पर नज़र में किसी के नहीं थे,

एक ज़रा सी आहट क्या हुई यारों निकल आये सारेआम आँसू जो तमाम रक्खे थे॥
राही (अंजाना)

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