Site icon Saavan

सावन

चला शावर है अंबर से
भिगोने धरती का आंगन
खिला हर पात डाली का
बही गंगधार भी कलकल

करे कलरव हर पंछी
चली है नाव कागज की
समेटे ख्वाहिशें मन भर
हुआ है बालमन उच्छृंखल

खिला हर पात डाली का
बही गंगधार भी कलकल

बड़ी गूंजें जय भोले की
बुझी चिंगारी शोले की
डले झूले भी सावन के
हुआ गौरी का मन चंचल

खिला हर पात डाली का
बही गंगधार भी कलकल

कहीं पायल बुलाती है
मिलन की राह दिखाती है
कहीं चूड़ी के शिकवे हैं
हुई हर आस जो धूमल

खिला हर पात डाली का
बही गंगधार भी कलकल

अजब इस बार का सावन
नहीं कहीं दिख रहा कावड़
मगर उपवास से नर नार
करें इस माह को उर्मिल

खिला हर पात डाली का
बही गंगधार भी कलकल

स्वरचित
रचना निर्मल
दिल्ली

Exit mobile version