हर सांस है मुजरिम न
हर सांस है मुजरिम न जाने किस गुनाह में
हर ख्वाईश है क़ैद न जाने किस गुनाह में
न कुछ बस में तेरे न कोई डोर हाथ में
जाएँ तो ज़िंदगी किन क़दमों की पनाह में
थमा वक़्त कभी तेज भागता वक़्त बेपैबंद
हर लम्हा दुबका बैठा ज़िंदगी की राह में
ख्वाब के बाद ऑंखें सदा खुली रखना
न जाने कब आ जाएँ कोई निगाह में
कब तलक खुद को बहलाएगा ‘अरमान’
फिर किसी अजनबी से मरासिम की चाह में
हर सांस मुजरिम है न जाने किस गुनाह में
हर ख्वाईश क़ैद है न जाने किस गुनाह में
राजेश ‘अरमान
वाह बहुत सुंदर रचना