ढ़ल गई है सांझ देखो,
धूमिल सा मंज़र हुआ
चांदी की चादर ओढ़ के,
हर पर्वत सो गया
चांद भी ठिठुरता सा,
बादलों में खो गया
श्वेत-श्वेत दूधिया सी,
सारी नगरी हो गई
हिम की एक बरसात से,
राहें भी कहीं खो गई
सुरमई अंधेरों में,
ये वादियां भी सो गई
मैं सुहाना सा ये मंज़र
देखती हुई जा रही
इन सुन्दर वादियों में,
मैं भी कहीं खो गई
*****✍️गीता