अब सवेरा हो गया है,
कब मुझे लगने लगे।
अस्त सारा तम हुआ है
कब मुझे लगने लगे।
उग रही कोपल खुशी की
दृगजल अब सुखना है,
दूर मन का गम हुआ है
कब मुझे लगने लगे।
उठ रहे हैं प्रश्न मन में
पूछते है बात खुद
आस अब नूतन जगेगी
कब मुझे लगने लगे।
देश का यौवन चला है
मार्ग पर उन्नति के अब
कुछ उसे मौका मिला है
जब तुझे लगने लगे।
तब समझ जाना कि सचमुच
में सवेरा हो गया,
अन्यथा तम है अभी भी
बस दिखावा हो गया ।
पौध मुरझा सी रही है,
क्या करें प्रातः से हम,
देख, यौवन की हताशा,
हो नहीं पाई है कम।
इस तरह सब कुछ सही है
किस तरह लगने लगे,
जब नई कोपल हमारी
हूँ व्यथित कहने लगे।
****** गीतिका मात्रिक छंदबद्ध पंक्तियाँ
—- डॉ0 सतीश चन्द्र पाण्डेय