यहां कोई न भला लगता है
अब बियाबान मेंं जी लगता है।
आ के शमशान में है ढ़ेर हुआ
वो उम्र भर का चला लगता है।
तुम भी ले आये क्या नकाब नई
आज चेहरा तो बदला लगता है।
आप ऐसे न छुआ कीजे मुझे
मेरे अंदर से कुछ चटकता है।
गरीबी जब से है जवान हुई
घर का दरवाजा बंद रहता है।
छोडिय़े, उसको कहां ढूंढेंगे
जो कहीं आस्मां में रहता है।
………सतीश कसेरा