Site icon Saavan

आज फिर से

आज फिर से
खिल जाने दो रात
महकती हुई साँसों से भीगी
तेरी हँसी की ख़नक
उतर जाने दो
एक बार फिर से
रूह तक
जैसे गूँज उठती हैं
वादियाँ
पर्वत से उतरती
किसी अलबेली नदी की
कल-कल से
और तृप्त हो जाती है
बरसों से प्यासी
शुष्क धरा
मन्नतों से मिली
किसी
धारा से मिलकर ।

Exit mobile version