आज फिर से
खिल जाने दो रात
महकती हुई साँसों से भीगी
तेरी हँसी की ख़नक
उतर जाने दो
एक बार फिर से
रूह तक
जैसे गूँज उठती हैं
वादियाँ
पर्वत से उतरती
किसी अलबेली नदी की
कल-कल से
और तृप्त हो जाती है
बरसों से प्यासी
शुष्क धरा
मन्नतों से मिली
किसी
धारा से मिलकर ।