जो इंसानियत की दुश्मन बन जाये, वो जमाअत कैसी।
खुदा ने भी लानत भेजी होगी, इबादत की ये बात कैसी।
खुद की नहीं ना सही, अपनों की तो परवाह कर लेते,
जिन्हें अपनों की परवाह नहीं, दिलों में जज़्बात कैसी।
जहाँ जंग छिड़ी मौत के खिलाफ, जिंदगी बचाने को,
वहाँ मौत के तांडव की, फिर से नई शुरुआत कैसी।
मौत किसी का नाम पूछ कर तो, दस्तक नहीं देती,
ये कोई मजहबी खेल नहीं, फिर यह बिसात कैसी।
जूझ रहे कई कर्मवीर, हमारी हिफाज़त के लिए,
मदद ना सही, फिर मुसीबत की ये हालात कैसी।
घरों में महफ़ूज रहें, मिलने के मौके और भी मिलेंगे,
जहाँ मिलने से मौत मिलती हो, फिर मुलाक़ात कैसी।
देवेश साखरे ‘देव’