हरे-भरे से थे रस्ते पहाड़ होने लगे
नदी क्या सूखी, इलाके उजाड़ होने लगे।
कौन से देवता को खुश करें कि बारिश हो
रोज चौपाल में ये ही सवाल होने लगे।
लकीरे खिंचने लगी रिश्तों में तलवारों से
जमीं के टुकड़ों को लेकर बवाल होने लगे।
इतना लंबा तो नहीं होता है चिट्ठी का सफर
कि आते-आते महीने से साल होने लगे।
कमर के साथ लचकती थी और छलकती थी
प्यासी उस गगरी में मकड़ी के जाल होने लगे।
नाम तक लेता नहीं है कभी उतरने का
कर्ज के पंजों में अब जिस्म हाड़ होने लगे।
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~–सतीश कसेरा