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उड़ जा रे पंछी

उड़ जा रे पंछी ख़ुशी से
उस असीमित गगन में
क्या सोचता है बैठ कर
फिर कैद की फिराक में
जल्दी से छोड़ दे ये बसेरा
कहीं और जाकर खोज ले
यहाँ पिंजरे है तेरी ताक में
आज तुझको समझा हूँ मैं
जब खुद को कैद में पाया
नहीं कुछ भाता है ऐसे में
क्या धूप हो या हो छाया
पंखों को फैलाकर अपने
खूब लम्बी उड़ान भरना
आँधी जो रोके राह तेरी
पल भर को तू न डरना
उड़ जा रे पंछी ख़ुशी से
उस असीमित गगन में
©अनीता शर्मा
अभिव्यक़्ति बस दिल से

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