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एक फ़रिश्ता

साक्षात्कार था मेरा उस दिन,
चिंता से था हृदय धड़कता।
एक दस का नोट पड़ा जेब में,
ऑफिस तक की भी बस कैसे पकड़ता।
दो सौ रुपयों की दरकार थी,
ज़िन्दगी से मेरी तकरार थी।
एक मंदिर की सीढ़ी पर बैठ गया,
बोला भगवान दया कर दे।
मेरे इन हाथों में भी,खुशियों की रेखा भर दे।
आकाश फूट अम्बर से आई गहरी आवाज़ एक,
रे मूर्ख व्यर्थ क्यों रोता है,तू आंख उठा कर उधर देख।
एक फ़कीर देख रहा था मुझको,
बोला, “बेटा क्या चाहिए तुझको ”
मैं बोला, बाबा सुन कर क्या करोगे
तुम खुद दुखी हो, मेरा दुख क्या हरोगे।
वो बोले, बच्चा तकलीफ़ बता,
मैं ही मदद कर दूं क्या पता।
मेरा अंतर्मन सकुचाए,ना जा पाने का दर्द भी सताए।
बाबा ने कुछ समझा शायद,कुछ रुपए मेरे हाथ में थमाए।
तुम चंद मिनट हो लेट, द्वार पर चपरासी ने बतलाया,
मैं मेल – ट्रेन की तरह दौड़ता, कमरे के भीतर आया।
इंटरव्यू अच्छा गया था, नौकरी भी मिल गई,
नौकरी मिलते ही ,मेरी तबीयत भी खिल गई।
आभार जताने पहुंचा बाबा का,जब में मंदिर के जीने पर,
बाबा नहीं मिले, बस देह मिली
रो पड़ा लिपट के सीने पर।
कुछ लोग बात कर रहे थे—–
“बीमार थे बाबा,दवाई पर जी रहे थे”।
कल दवाई नहीं मिल पाई, बाबा ने यूं जान गंवाईं।
अपनी दवाई के रुपए, वो मुझे दे गया।
वो फ़कीर नहीं, एक फ़रिश्ता था,
सब उस पर करते थे दया,वो मुझ पर कर गया
कैसा वो इंसान था, मेरे लिए भगवान था।
बहुत रोया मैं, उन्हें बहुत याद किया,
उनकी आत्मा को शांति देना भगवन् ,
दिल से ये फ़रियाद किया।

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