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कभी मीठा कभी खट्टा

कभी धूप सुहाती है
कभी भाती है छाया,
कभी विरक्ति आती है
कभी लुभाती है माया।
कभी मीठा कभी खट्टा
कभी कड़वा कसैला,
बदलते स्वाद भाते हैं
अलग से ख्वाब आते हैं।
समय अस्थिर, न कुछ स्थिर
न मैं स्थिर न तुम स्थिर
धरा भी घूमती रहती
सांस तक है पलक अस्थिर।
नजर जब दूर तक डाली
अंधेरा था उजाला था
सभी प्रकृति का सृजन
सभी उसका निवाला था।
आज जो पात गिरते हैं
वही तो खाद बनते हैं,
गिरे पत्ते बने माटी से
पौधे स्वाद लेते हैं।
चला है चक्र सृजन का
चला है चक्र मिटने का,
सभी अस्थिर नहीं फिर भी
किसी भान को झुकने का।

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