मेरा वजूद भी तेरा
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मेरा वजूद भी कहाँ रहा मेरा
इसपर चढ़ा हर रंग तुम्हारा है ।
छूटे माँ पापा, कहाँ मैका अब मेरा
तेरा घर ही अपना बसेरा है ।।
मैं ही नहीं,कहाँ अब नाम भी है मेरा
सात फेरो के बंधन से हर साँस है तेरा ।
माथे की बिंदी हो या मांग पर सिन्दूर की लाली
मेरा वजूद तुझबिन वृहद् आकाश सा खाली ।।
कंगन की खनखन हो या पाजेब की छनछन
सभी तुझसे ही शोभित जाने है ये अन्तर्मन ।
अफसोस है इतना बदला क्यू खुद को इतना
खुद को भूल खुद से जोङा तुझसे हर सपना ।।
इबादत की तुम्हारी,घर को जन्नत सा सजाया है
पर भला तुमने कहाँ कब मुझे अपना सा-जाना है ।
ना मैका है अपना, ना तुझ संग अपना ठिकाना है
कहाँ जाए, छलावा-सा हर बेटी का, कैसा फसाना है ।।
काश! सिर्फ औरत नहीं इन्सान समझा होता
माँ बहन बेटी की तरह हमें भी सम्मान दिया होता ।
हमारी उलझनों को भी, संयम से, सुलझाया होता
फिर डांट डपट चाहे जितनी भी कसक दिया होता ।।
कोई भी गाङी पहिये के सही तालमेल से चलती है
नहीं तो, मन्जिल तक कहाँ, कब ढंग से पहुँचती है ।
लङ के कुछ कहाँ हासिल, कहाँ ऐसे जिन्दगी संवरती है
सुमन आर्या