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कान्हा की मीरा

सघन बादल तुम….. मै धरती,
प्रेम सुधा पीने को तरसी।
उन्मुक्त प्रेम का हनन ना कर,
हे घन! अब बरस,
दुर्दशा ना कर।
प्रेम आचमन करा दे मुझको,
सुधा में नहला दे मुझको,
प्रेम पाश में बंधी है मै,
सीढ़ी दर सी चढ़ी हूं में।
आकाश में चांद को छूना है,
कान्हा की मीरा बनना है।
निमिषा सिंघल

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