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काश कभी गले लगाकर

सोचता हूँ अक्सर
कि तुमको देखे बिना
पता नहीं
कितनी सदियाँ
गुजर गयीं हों जैसे
और तुम
अभी भी बुन रहे होगे
मेरी दुनिया से परे
मेरे लिए
कुछ और इल्ज़ाम
कि जब अचानक
किसी मोड़ पर
मिल गए हम
तो पहना सको मुझे
झट से उन्हें
मेरे कुछ कहने से पहले ही ।
एक छोटी सी
नाराज़गी ही तो थी
या एक पागलपन
जिसे ढो रहे हो अब तक,
काश कभी गले लगाकर
बस एक बार
देख तो लेते…
शायद पिघल कर
लिपट जाता मैं भी
तुमसे
और भूल जाता
अपनी नाराज़गी
और
तेरे हाथों से मिले
वे सारे ग़म।

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