कहाँ रहे अब किताबों के दिन !!
अब तो बस अलमारी में
रखी हुई किताबें
धूल खाया करती हैं
गुजरती हूं जब कभी
उनके करीब से तो
मुझे बड़ी उम्मीद से देखती हैं
कि शायद आज मैं उन्हें
स्पर्श करूंगी, उठाऊंगी,
खोलूंगी, पढूँगी और झाड़ूगी
उनके ऊपर से धूल की परतें !
जो न जाने कब से जमी हैं
और जब मैं मुंह मोड़कर चल देती हूँ
तो वह ना-उम्मीद उठती हैं।।