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क्या लिखूँ ?

दिनरात लिखूँ

हर बात लिखूँ

दिल के राज़ लिखूँ

मन के साज़ लिखूँ।

 

अपने वो दिन बेनाम लिखूँ

लेकिन नहीं हुआ बदनाम लिखूँ

कितना बनकर रहा गुमनाम लिखूँ

इतना कुछ पाने पर भी

बनकर रहा मैं प्राणी आम लिखूँ।

 

मन तो मेरा कहता है

कि लगातार लिखूँ

और दिल भी पुकारता है

कि सबके सामने सरेआअम लिखूँ।

 

 

 

कितनों ने दिया साथ

और कितनों ने

दिखाया खाली हाथ

क्या वो भी लिखूँ।

 

वक़्त केसे पड़ गया कम

होते हुए भी मन में

समुद्रसी अनगिनत,

लेकिन हर धार नज़ारेदार

ये गुत्थी भी है मज़ेदार

दिल तो कहता है

ये भी लिखूँ।

 

कहां से लेकर कहां तक लिखूँ

जब मुझे आदि और अंत का

ज्ञान ही नहीं

किसकिस ज़माने की गाथाऐं लिखूँ

जब मुझे अबतक सही और गलत की

पहचान ही नहीं

 

और हां

तुम जो कोई भी हो

जो ये पढ़ रहे हो

उसके खातिर

उसे बिना जाने ही

आखिरखार क्या लिखूँ?

 

                                       कुमार बन्टी

 

                         

 

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