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खुशियां गरीब की

झरने झर-झर बह रहे थे,
समीर के शोर कुछ कह रहे थे
कितना आनन्द आता होगा उन्हें,
जो यहां पे रह रहे थे
ये सोचती-सोचती मैं चली जा रही थी,
वहीं कहीं अंदर को, एक गली जा रही थी
एक घर के आगे रूकी यूं ही
वहां, मंद-मंद सी रौशनी आ रही थी
एक बालक ख़ुशी से बोल रहा था,
ख़ुशी-ख़ुशी नाचता सा डोल रहा था
अरे, सुन ओ कलुआ..
आज पर्यटक बहुत मिले थे
मां की हो गई बहुत कमाई,
आज तो घर में बनेगा हलुआ
आज तो घर में बनेगा हलुआ ।

*****✍️गीता

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