ग़ैरों की बस्ती में , अपना भी एक घर होता..
अपने आप चल पड़ते कदम
य़ु तन्हा ना य़े सफर होता….
वक्त बिताने को आवाज देती दीवारे साथ छुटने का ना कोई ड़र होता….
गैरों की बस्ती मे अपना भी एक घर होता…
अपना कहने वाला ख़ास अपना नही फिर भी अभिनंदन होता …
यहां अपने बना देते है पराया
वहां पराय़ो से अपना एक बंधन होता…
हर दर्द तबदील हो जाता ख़ुशी में स्वागत ही इस कदर होता…
काश गैंरो की बस्ती मे अपना भी एक घर होता….
पहन लिए अपनों ने लिबास गैरों के… अपनेपन को भुल
बन गए गुलाम पैसों के …
” अतिथि देवों भव ” का भावार्थ कर मन से दुर …
वे भक्त हैं अपने जैसों के…
सीख़ाय़ा खुद को अपने पहचानने का हुनर होता ….
तब शायद गैरो की बस्ती मे अपना भी एक घर होता …..
जिसे अपना माना ज़िंदगी मे
उसी ने तिरस्कार किया …..
किस और राह तलाशती निगाहें
फिर ग़ैंर ने आकर हाथ थाम लिया…
अपनेपन की बैठा किश्ती मे उसने ख़ुशियों के सागर मे उतार दिया ….
समझदारी की समझ से समझदार हुं लेकिन ना समझ होता …
” तब जाकर कहीं गैंरो की बस्ती मे अपना भी एक घर होता…”
पंकज सोनी