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गुज़ारिश गुज़ारिश

गुज़ारिश गुज़ारिश

गुम हुआ अपने शहर की गलिओं मेँ अपना साया है
मैंने भी कब अपने शहर का कोई क़र्ज़ चुकाया है

अब तो हो गए वो रास्ते भी किसी अजनबी से
जिन रास्तों ने कभी तुमको चलना सिखाया है

उम्र गुजरी है गैर लोगों को अपना बनाते हुए
अपने लहू को मगर मैंने ही ठुकराया है

ताउम्र ढूंढ़ता रहा अक्स अपना अजनबी शहर में
मैंने खुद अपने हाथों से शहर अपना दफनाया है

माना ख्वाइशों का जुनूँ हर एहसास पे भारी है
तेरी खवाइश ने तेरे अपनों को बहुत रुलाया है

सोच के देख तू ज़िंदगी में , इतना तनहा हुआ कैसे
न पास अपने माँ का आँचल, न अपनों का साया है

इक दिन वो भी आएगा होगा तुझे भी महसूस
इस ज़माने ने कब किसी गैर को अपनाया है

अपनी मिटटी ,अपनी फ़िज़ाओं पे ऐतबार तो कर
अपने वास्ते भी ख़ुदा ने सब कुछ वहां बनाया है

एक दिन कभी . बैठ के करना हिसाब लम्हों का
तूने ज़िंदगी में कितना खोया ,कितना पाया है

तालीम लेता है इंसा तरक्की की खातिर लेकिन
खुद को खोना मगर किताबों ने नहीं सिखाया है

गुम हुआ अपने शहर की गलिओं मेँ अपना साया है
मैंने भी कब अपने शहर का कोई क़र्ज़ चुकाया है

राजेश ‘अरमान’

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