घर

“घर”

मन की बातें साझा करने, आज कलम फिर चहक उठी। कागज़ ले जब लिखने बैठी, घर की यादें फिर महक उठीं।

हर चोट बड़ी थी, दर्द बड़े थे…. जब तक, घर की दीवारों ने महफूज़ हमें कर रखा था। नहीं पता था, दुनिया ने एक जाल बिछा कर रखा था। फसें हुए इस कर्म जाल में जब भी हमने आह ! भरी, दिल ने दी घर को आवाज़ और घर की यादें महक उठीं। बाहर रहकर घर की चौखट से, याद उसी को करते हैं। ज़िद करके बाहर आए, अब घर जाने को मरते हैं। ना हैं वो कोने कहीं और, वैसी कोई दीवार नहीं । जो आनंद मिले घर में वैसी दुनिया में बात नहीं।

मन की बातें साझा करने, आज कलम फिर चहक उठी। कागज़ ले जब लिखने बैठी, घर की यादें फिर महक उठीं।

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