आसान बहुत है चाह अच्छा बनने की पाल लेना
पर तय सफर पर बढ़ते रहना,बङा ही कठिन है
आस किसी के मन में जगाकर,
खुद के घर की रौनक घटाकर,
पर हित में इच्छा को दबाकर,
खुद के ख्वाइशो के राख पर,
आशिया गैरों का सजाना,
बङा ही कठिन है।
क्या कहूं तुमसे, कैसे बाधक बनूं मैं
चुप रहकर कैसे, तिल-तिल जलू मैं
भला करके भी, कुछ हासिल नहीं
कैसे समझाऊं,वे सहानुभूति के काविल नहीं
डसने वालों की फितरत बदलना
बङा ही कठिन है।
है भरोसा, ऊपर वाले की रहमतों पर
न्याय से वंचित नही, कोई उनके दर पर
आसरा नहीं किसी और की इस मन में जगे
आसरा पूरी करूं, ऐसी लगन बल पौरुष मिले
हे नाथ!तात-मात-सखा आप हो, राफ्ता बदलना
बङा ही कठिन है।