चलना संभल कर यहां जर्रे जर्रे में है धोखा।
अब सांसे भी सांसों को देता रहा है धोखा।
यूं जिंदगी को न कर इस कदर रुसवा यहां
हर गली हर चौराहे पर पसरा है धोखा।
वो सियासी नेता हो या हो कोई नन्हा बच्चा
हर इंसान के रग-रग में छिपा है धोखा ।
पानी की बुलबुले सी रह गई है जिंदगी,यहां
जिन्दा खुद जिन्दगी को देता रहा है धोखा ।
रात काली उजियारे सा महफिल है “योगेंद्र”
दिन निकला तो है,पर उजाले का है धोखा।
योगेन्द्र कुमार निषाद
घरघोड़ा,छ०ग०