चलना संभल कर यहां जर्रे जर्रे में है धोखा
चलना संभल कर यहां जर्रे जर्रे में है धोखा।
अब सांसे भी सांसों को देता रहा है धोखा।
यूं जिंदगी को न कर इस कदर रुसवा यहां
हर गली हर चौराहे पर पसरा है धोखा।
वो सियासी नेता हो या हो कोई नन्हा बच्चा
हर इंसान के रग-रग में छिपा है धोखा ।
पानी की बुलबुले सी रह गई है जिंदगी,यहां
जिन्दा खुद जिन्दगी को देता रहा है धोखा ।
रात काली उजियारे सा महफिल है “योगेंद्र”
दिन निकला तो है,पर उजाले का है धोखा।
योगेन्द्र कुमार निषाद
घरघोड़ा,छ०ग०
बहुत बढ़िया
Lagta Aapko bahut dokhe mile he…by the way. Well written
धोखे मे जी रहे है
गम पी जख्म सी रहे है
सादर आभार जो आपको रचना पसंद आई।
Waah
वाह
😄
Good