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जब सोचा इक दफ़ा जिन्द्गी के बारे मे

जब सोचा इक दफ़ा जिन्द्गी के बारे मे

किस कदर बसर हुई जिंदगी मेरी

क्यों भटकता रहा जिंदगीभर मुसाफ़िर बनकर

ज्वालामुखी सा जलता रहा

कभी लावे सा पिघलता रहा

 आसमां को छुने की आरजू में

पतगं सा हर बार कटता रहा

हाथों की लकीरों से लडता था कभी में

अब उन लकीरों मे ही ढ़लता रहा

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