जल तु इतना कोमल फिर कठोर क्यों
तुम जीवन-रक्षक फिर प्राण-हरता क्यों
तुम बहते सरल फिर तीव्र रूप क्यों
तुम मीठी-प्यास फिर नमकीन क्यों
यह गुस्से में नीला आसमान क्यों
जलमग्न धरती थर-थर कांपे क्यों
इन्सान खुद ही प्रकृति का विनाश कर पूछें क्यों
खुदगर्ज इन्सान अपने बिछाऐ जाल फंस अब रोए क्यों
प्रकृति को प्यार कर, सहेज ले, यह और नहीं कुछ चाहती
अवसर अभी बाकी है
तपता सूरज, चाँदनी रातें, महकती हवाएँ,
अभी गंगा में बहती जलधारा बाकी है।