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जिन्दगी भर भटका किये राह-ए-उम्मीद में,

जिन्दगी  भर  भटका  किये  राह-ए-उम्मीद  में,
कभी   पहुँच   ही  ना  पाये  दयार-ए-हबीब में,

शाम  ढ़ल  गयी  और  हम  यूँ  ही  बैठे रह गये,
वो आये और जा बस गये निगह-ए-अंदलीब में,

क्या   खता   खुदा  की  क्या  उनकी खता थी,
जब  लिख  दिये  हो  किसी  ने  ग़म-नसीब  में,

जब  वो  अक्स-ए-रूख थे देख रहे मेरे रकीब में,
हम पूँछते ही रह गये क्या कमीं थी मुझ गरीब में,

वो आके हमसे पूछते क्या हो किसी तकलीफ में,
हम  घुट घुट के  यूँ ही  मर  गये हिज्र-ए-हबीब में,

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