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जीने का हक

माँ से बोली एक बेबस बेटी:-

अविस्मरणीय है कोख तेरी माँ
जिसमें स्फुटित हुई हूँ मैं ।

तुझे किसने बता दिया है माँ
बेटा नहीं बेटी हूँ मैं ।

तभी से तू बेसुध है तेरे चेहरे की मुस्कान उड़ी
चिन्ता ने तुझको आ घेरा मेरे जीवन पर आन पड़ी।

तू भी तो एक बेटी है माँ फिर क्यों इतना पश्चाताप करे दुनिया वालों की खातिर तू ‘भ्रूण हत्या’ का पाप करें।

गर्भ में ना मार मुझे हाँथ जोड़
बोली बेटी ये——

अभी-अभी तो साँस मिली है
माँ उसको तुम मत छीनों।

ममता की छाँव नहीं दे सकती हो पर
‘जीने का हक’ तो मत छीनों ।

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