जीवन दायनी ये नदियां
पहुँचती हैं जब विकरालता के चरम पर
लील लेतीं हैं उनकी ज़िन्दगियाँ
जिन्दा रहते हैं जो इनके करम पर।।
भूमि तो उर्वर कर जाती हैं
पर कयी दंश भी दे जाती हैं
कितने ही धन घर पशु सम्पदा
अपने आगोश में बहाके जाती हैं ।।
बढ़ते जलस्तर का लाल निशान देख
घर छोड़ सङक पर जन लेते हैं टेक
पैरों में बहती है अविरल जलधारा
इस विषम समय में भी भूखा है पेट बेचारा ।।
एक के हाथोंमें है ब्रेड का एक टुकड़ा
दूजा आशा से उसको देखा करता है
हर साल एक नयी आशा की दिशा में
बाढ़ पीड़ित बिहारी का जीवन कटता है ।।
पिछङेपन में हमारी गिनती का
यह भी एक ,बङा कारण रही है
खाने-पीने की ही सूध जब नहीं है
शिक्षा की, किस पीङित को,क्या पङी है ।।
शिक्षा जब नहीं तो रोजगार हो कहाँ से
रोजगार की कमी से, यहाँ बढ़ी , गरीबी है
जनप्रतिनिधियों को कौन क्या कहे अब
जब ईश्वर ही बना फरेबी है ।।