बेवजह ख्वाब को हम जिए जा रहे हैं
हकीकत को धोखा दिए जा रहे हैं
पता है मयस्सर, न होंगी ये ख्वाहिश
मगर कोशिशें हम, किए जा रहे हैं
मिली मुफ्त में है, ये नींदे ये ख्वाहिश
अगर टूटी ख्वाहिश, बेशक न रोना है
खुलेगी जब आंखें, जनाब
सामना हकीकत से ही होना है
✍️स्वरचित कविता-प्रिया वर्मा