झूठ की दुकान खूब चली,
“सच”, सच बोलता रहा
उसकी ना चलनी थी, ना चली,
पर ये ज्यादा लंबा चलने वाला ना था
काठ की हांडी में एक बार तो पका लिया,
फिर दोबारा चढ़ी, जलनी ही थी सो जली।
सच्चाई तो फिर सच्चाई है,
एक ना एक दिन लगेगी भली
झूठ को देखो, घूमे है गली गली।
✍️.. गीता