थी ख्वाईश हमारे दिल को मगर,
इतफाकन गम करोना के मिल गए।
जब होने लगे थे साकार अपने सपने,
तब महामारी के आगोश में हम समा गए।।
क्या करे घर में जवान बहन बेटी थी हमारी,
बेरोजगारी के देश में रोजगार कहाँ मिलता।
पापी पेट का सवाल लिए खड़े थे हमारे बच्चे,
गर न जाता परदेश होंठों पे हंसी कैसे आता।।
सोचा था अपने गुलशन में गुल खिलायेंगे,
गुल न खिल कर किस्मत में काँटे ही मिले।
गरीब की गठरी सिर पर ले कर ए दोस्त,
देखो जरा शहर से हम अपने गाँव चले।।