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ठंड बढ़ती जा रही है

ठंड बढ़ती जा रही है
वह सिकुड़ता जा रहा है
रात भर सिकुड़ा हुआ
तन अकड़ता जा रहा है।
सिर व पैरों को मिलाकर
गोल बन सोने लगा,
नींद फिर भी दूर ही थी
क्या करे, रोने लगा।
यूँ तो मौसम सब तरह के
कुछ न कुछ मुश्किल भरे हैं,
ठंड की रातों के पल पल
और भी मुश्किल भरे हैं।
छांव होती गर तुषारापात के
पाले न पड़ता,
काट लेता ठंड के दिन
इस तरह जिंदा न मरता।
पांच रुपये जेब में थे
पेटियां गत्ते की लाया
मानकर डनलप के गद्दे
भूमि पर उनको बिछाया।
क्या कहें ठंडक भी जिद्दी
भेदकर गत्तों का बिस्तर
आ रही थी नोचने तन
बेबस था वह फुटपाथ पर।
—— सतीश चंद्र पाण्डेय

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