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तब कवि कहाँ हैं हम

गलत को यदि गलत बोलें नहीं
तब कवि कहाँ हैं हम,
बन्द आंखें कर चलें तब
कवि कहाँ हैं हम।
जी हुजूरी में रहे
आदत कलम की है नहीं
यदि किसी से दब गए
तब कवि कहाँ हैं हम।
झूठ की ताकत भले
छूने लगे ऊँचा गगन
साथ सच का छोड़ दें
तब कवि कहाँ हैं हम।
खेल हो जब दूसरे की
भावना से खेलने का
हम समझ पायें नहीं
तब कवि कहाँ हैं हम।
बह रहा हो अश्रुजल
छल-छल किसी मासूम का
पोंछ पायें गर नहीं
तब कवि कहाँ हैं हम।
छीनता कोई दिखे जब
हक किसी मासूम का
रोक पायें यदि नहीं
तब कवि कहाँ हैं हम।

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