जिसको पल-पल खोजू बाहर, ढूंढे से न मिलता हैं
ऐसी भी क्या ख़ता हुई जो, हर बार आशा का दीपक बूझता हैं
एक छोटी सी चाह थी मेरी, कि सबके सपने पूरे करूँ
टूटा हुआ सपना मेरा, अब मन-ही-मन खलता हैं
आँस तुम्से ही लगाई हैं, अब न और मन में पलता हैं
जिसको पल-पल खोजू बाहर, ढूंढे से न मिलता हैं।।
हर दर जाकर खोजा सुख को, अब वह कहीं न पाया हैं
दोहुं जगह ही मन का पंछी, अपना घरौंदा बनाता हैं।
एक द्वार तेरा साँवरे वृदावन, जो खुलता हैं
दुजा आसरा तेरा महाकाल जो उजैनी नगरी बसाता हैं
कृष्णा तेरा रूप मनोहर, जो मन को चित ठगे जाता हैं
महाकाल की छवि निराली जो मन को ठहराव बताता हैं
दोनो ही पूरक है मेरे, न कोई कम न कोई ज्यादा हैं
एक राह दिखलाता हैं, दुजा आस बंधाता हैं
पल- पल जिसको बाहर, वह आप दोनो के सुमिरन भर से मिल जाता हैं।।