तुम महज एक तस्वीर हो

तुम महज एक तस्वीर हो

मैं जानता हूँ कि,
तुम महज इक तस्वीर हो
ओर उससे आगे कुछ भी नहीं
मगर दिल ये कहता है
तुम महज इक तस्वीर नहीं हो

सुना था तस्वीरें बोला नहीं करती
पर तुम क्यों बोलती हो
क्यों मेरे निहारने से तुम्हारी
तस्वीर का रंग सूर्ख हो जाता है
क्यों कन्खिओं से देखते
तस्वीर का रुख बदल जाता है
तुम महज इक तस्वीर नहीं हो

क्यों मेरा आँगन भरा रहता है फूलों से
जो तेरे हसने से झरते है
जबकि मैं जानता हूँ
मेरे आँगन में
कोई पौधा नहीं लगा है
किसी भी फूल का
तुम महज इक तस्वीर नहीं हो

क्यों तुम्हारी बिखरी जुल्फें
ललाट को चूमती हुई
पूरे चेहरे को स्पर्श करती है
एहसास कराती किसी घटाओं का
घिर आये बादलों का
तुम महज इक तस्वीर नहीं हो

क्यों कानो में घोलती माधुर्य रस
तुम्हारी चूडियों की खनखन
बिखर जाते असंख्य प्रसून
तेरे अधरों के प्रस्फ़ुट कम्पन se
ज्योति को परिभाषित करती
तेरे माथे की बिंदिया
तुम महज इक तस्वीर नहीं हो

कविता हो तुम मेरी कल्पना की
या फिर हो मेरे होठों की ग़ज़ल
कपोलों पर छवि शशि की ,
जैसे झील में खिला हो कँवल
क्यों देख इस कंचनकाया को
हो जाती है साँसें प्रबल
तुम महज इक तस्वीर नहीं हो

क्यों मदहोश कर देती
तेरी चारूं देह की भीनी सुगंध
क्यों देखने से लगता तुझे
पतझड़ भी ,मदमाया मौसम
कब तक रखें कोई
अपने चंचल मन में संयम
तुम महज इक तस्वीर नहीं हो

क्यों देती है तेरी अधखुली पलके
सुधापान का मौन निमंतरण
क्यों न करदे तुझ पे
अपना सारा
जीवन अर्पण
तुम महज इक तस्वीर नहीं हो

तुम महज एक तस्वीर हो
इसका भी मुझे एहसास है
तुम महज एक तस्वीर नहीं हो
इसका भी मुझे विश्वास है

मैं जानता हूँ तुम नहीं ,
मेरे हाथों की लकीर हो
फिर भी कैसे कर लूँ यकीं

तुम महज एक तस्वीर हो

तुम महज एक तस्वीर हो

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