तोहमत लगाने की आदत
कब की छूट चुकी है
मैं गुलाम ही सही मुझे
सबकी आजादी की पड़ी है
मुक्त होती है रुह मरकर ही
मुझे मुक्त होना है जीते जी ही
इक बीज किसी फल का नहीं
कहीं यूं ही फेंकता हूं मैं कहीं
जमीन अपनी हो या परायी
हरियाली कि उम्मीद न छोड़ता हूं कहीं
पर्यावरण में सुधार के लिए ही
शायद मैं भविष्य में अगर जिंदा हूं
जिंदगी में बीत चुकी है जो गलतियां
उसके लिए तब तभी ही शर्मिंदा हूं
हर रोज बदल जाते हैं इंसान यहां
क्यूं पुरानी गलतियों के लिए कोसते हैं
बीते हुए कर्मों की सजा भोग रहें हैं
वर्तमान के कर्मों के लिए तैयार खड़े हैं