थकी सोई हुई लहरों को चलकर थपथपाते हैं
समंदर में चलो मिलकर नया तूफान लाते हैं।
न आये पांव में छाले तो मंजिल का मजा कैसा
सफर को और थोड़ा सा जरा मुश्किल बनाते हैं।
अंधेरे में बहुत डरती है घर आती हुई लड़की
अभी सूरज को रुकने का इशारा करके आते हैं।
गया हो घोंसले से जो परिन्दा फिर नहीं लौटे
कभी जाकर के देखो पेड़ वो आंसू बहाते हैं।
हमें मालूम है कागज की कश्ती डूब जायेगी
मगर ये देखते हैं इससे कितनी दूर जाते हैं।
उन्हें मालूम है सबका यही अंजाम होना है
खिलौने तोड़कर बच्चे तभी तो खिलखिलाते हैं।
————————————————–सतीश कसेरा