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दबे पांव निकल लेते हो

मुझे किन बातों की सजाएं दे रहे हो तुम,
टेढ़ी नजरों से तक देख नहीं देते हो।
कहीं किसी और की धमक तो नहीं है जो कि,
शांत चेहरे उलझन पाले रहते हो।
कहीं कोई और मुझ से तो बेहतर नहीं,
जिसके कारण नजरों को फेर लेते हो।
नये फूल की तरफ खिंचे रह जाते हो यूँ,
उसकी सुगन्ध के दीवाने बन जाते हो।
हम तो लगे हैं आशा एक मुस्कान दोगे,
तुम किनारे से दबे पांव निकल लेते हो।
———– डॉ0 सतीश पाण्डेय,
—- उत्तराखंड

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