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दुल्हन

ओस के मोतियों जड़ा
एक हर बनाऊ मैं
फलक के सितारों से
तेरी मांग सजाऊंगा मैं ।
काली घटाओं से मांग लूं
तेरी आंखों का काजल
झिलमिलाती लहरों से
बनाऊं तेरी पायल ।
श्वेत चांदनी से बुनकर
पहनाऊं तुझे चुनरी
सागरों के सीपो जड़ी हो
तेरी अंगुलियों की मुंदरी ।
डूबते सूरज की
सिंदूरी शाम से लेकर
एक चुटकी भर दूं
तेरी मांग में ।
प्रकृति के अनमोल गहनों से
सजी फिर उस दुल्हन का
मैं घुंघट उठाऊं
उसी की आंखों में खो जाऊं
उसी की बाहों में सो जाऊं।
वीरेंद्र सेन प्रयागराज

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