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देहिक सुख के कारण मनुष्य आंतरिक शक्ति खोते है ।

देहिक सुख के कारण मनुष्य आंतरिक शक्ति खोते है ।
ब्रह्मचर्य व्रत को खंडित-खंडित करके अपनी जिज्ञासा पूरी करता है ।
और भी और भी सुख के कारण सारी शक्तियाँ गँवाता है ।
जो नर हरा सकते है सिंह को, आज वो हार की माला स्वीकारते है ।।1।।

भौतिक सुख के कारण मन सदा विचरता रहता इन्द्रियों के जाल में ।
उसका क्या है, उसका तो मालिक ही भोगी है, इसलिए वह मन स्वतंत्र विचरता है ।
योगी का मन तो सदा रहता प्रभु के पद्चिन्ह्नों में , पर भोगी खोया रहता निंदो में ।
दोनों एक ही मिट्टी के मूरत है, पर दोनो के स्वभाव आकाश-पाताल के दूरी है ।।2 ।।

देह सुख नहीं परम सुख कहलाते है ।
ये तो क्षणभंगुर शक्ति ह्यास का चित्कार है ।
जो नर करूँ शक्ति का दुरूपयोग ।
उसका न होता कभी भविष्य उज्जवल, प्रकाशमय ।।3।।
कवि विकास कुमार

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