देहिक सुख के कारण मनुष्य आंतरिक शक्ति खोते है ।
देहिक सुख के कारण मनुष्य आंतरिक शक्ति खोते है ।
ब्रह्मचर्य व्रत को खंडित-खंडित करके अपनी जिज्ञासा पूरी करता है ।
और भी और भी सुख के कारण सारी शक्तियाँ गँवाता है ।
जो नर हरा सकते है सिंह को, आज वो हार की माला स्वीकारते है ।।1।।
भौतिक सुख के कारण मन सदा विचरता रहता इन्द्रियों के जाल में ।
उसका क्या है, उसका तो मालिक ही भोगी है, इसलिए वह मन स्वतंत्र विचरता है ।
योगी का मन तो सदा रहता प्रभु के पद्चिन्ह्नों में , पर भोगी खोया रहता निंदो में ।
दोनों एक ही मिट्टी के मूरत है, पर दोनो के स्वभाव आकाश-पाताल के दूरी है ।।2 ।।
देह सुख नहीं परम सुख कहलाते है ।
ये तो क्षणभंगुर शक्ति ह्यास का चित्कार है ।
जो नर करूँ शक्ति का दुरूपयोग ।
उसका न होता कभी भविष्य उज्जवल, प्रकाशमय ।।3।।
कवि विकास कुमार
True
बहुत खूब
छन्द शास्त्र का। मजाक मत बनाओ
सर जी हमें छन्द, अलंकार, कविता लिखने की कोई विधा नहीं आती है, हम अपनी जानकारी के मुताबिक और आज तक जो पढ़ा श्रीरामचरितमानस और उससे जो कुछ सीखने को मिला, वह बात आपलोगों के समझ रखता हूँ ।।
समक्ष