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धधक रहा है मुल्क

धधक रहा है मुल्क, और कुछ आग मेरे सीने में।
वफ़ादारी खून में नहीं तो फिर क्या रखा जीने में।

वतन परस्ति से बढ़कर, और कोई इबादत नहीं,
वतन परस्ति का सुकून, न काशी में न मदीने में।

सियासत के ठेकेदार, देश जला सेंक रहे हैं रोटी,
हमारे घरों में रोटी, मिलती मेहनत के पसीने में।

अच्छे ताल्लुकात हैं उनसे जिन्हें मैं जानता हूँ, वो
पत्थर नहीं फेंकते, चढ़ ऊँची इमारत के ज़ीने में।

बिखरना लाज़मी है, जब मजहबी दरार पड़ जाए,
डूबने से बच नहीं सकते, गर छेद हो सफ़ीने में।

देवेश साखरे ‘देव’

ज़ीना- सीढ़ी, सफ़ीना- नाव

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