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धूल में यौवन के सपने- बेरोजगारी

आज है मन खिन्न कवि का
देख चारों ओर अपने
घिर गई बेरोजगारी
धूल में यौवन के सपने।
देखकर उस दुर्दशा को
क्या लिखें, कैसे लिखें,
पढ़ रहे हैं, डिग्रियां हैं,
बस पुलिंदे ही दिखें।
भीड़ है चारों तरफ
अकुशल पढ़ाई हो रही है,
भर्तियों पर कोर्ट में
न्यायिक लड़ाई हो रही है।
एक विज्ञापन की भर्ती
को निपटने में यहां
पांच से छह वर्ष लगते हैं
युवा जाये कहां।
छा रही है बस निराशा
हो गया यौवन दुखी,
सोचता है कुछ करूँ
मेहनत करूँ आगे बढूं।
पर बढ़ेगा किस से
रास्ता तो बन्द है,
देश की आर्थिक परिस्थिति
गिर रही है, मन्द है।
कुछ करो फिर कह रही है
कवि कलम आवाज देकर,
देश की ओ शीर्ष सत्ता
कुछ करो अब ध्यान देकर।
— डॉ0 सतीश पाण्डेय
चम्पावत, उत्तराखंड

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