खुशियां सदा अमावस की रात की
आतिशबाजी की तरह आईं
मेरे जीवन में…
जो बस खत्म हो जाती है क्षण भर की
जगमगाहट और उल्लास देकर…
और बाद में बचता है तो एक लंबा
सन्नाटा और गहन अँधेरा….
वहीं नैराश्य मेरे जीवन में आया किसी
धुले सफ़ेद आँचल पर लगे
दाग की तरह ..!!
जो शुरुआत में तो बुरा लगता है परंतु
धीरे धीरे लगने लगता है उस आँचल
का अभिन्न हिस्सा…!!
वस्तुतः ‘नैराश्य’ मेरा स्थायी भाव है
जो बस है मेरी कांतिहीन आँखो
में प्रतीक्षा बनकर…!!
©अनु उर्मिल ‘अनुवाद’